अभी हाल ही में KIA ने अपनी Seltos कार का नया version लांच किया है. देखते ही देखते KIA Seltos के इस version ने 24 घंटे से भी काम समय में 13000 की बुकिंग्स को पार कर दिया.
कमाल की बात तो ये है की इस समय गरीब तबके के प्लेट से टमाटर, अदरक और हरी मिर्ची गायब हैं, तो फिर वो कौन लोग हैं जो 20 लाख की KIA Seltos की बुकिंग्स कर रहे हैं?
इसका जवाब है – आर्थिक असमानता।
अब आर्थिक असमानता क्या है?

KIA Seltos – अंधाधुन बुकिंग्स
गरीब और अमीर के बीच के फर्क को कहते हैं आर्थिक असमानता। एक तरफ जहाँ एक आदमी 150 रुपये किलो के टमाटर को लेने से पहले गुल्लक फोड़ रहा है, वहीँ दूसरा आदमी है जो बस एक 20 लाख की KIA Seltos के प्रचार और उसके फीचर्स को देख के उसकी बुकिंग करा के आ रहा है. अब वो गाडी कैसी होगी, सड़क पे उतरने के बाद क्या उसमें कोई कमी या खराबी आएगी? इस बात का उसको कोई फर्क नहीं पड़ता है.
एक देश की आर्थिक समानता जितनी बड़ी होगी उस देश की अर्थव्यवस्था पे भी उसका उतना ही प्रभाव पड़ेगा.

इसी की बानगी है की भारत में आज के समय अमीर और गरीब के बिच में बहुत गहरी खायी है. अमीर और अमीर बनता जा रहा है, वहीँ गरीब और गरीब होता जा रहा है. ऊपर से देखेंगे तो सब चंगा है. ठीक वैसे जैसे, दूध में मलाई ज़रूर है, लेकिन अंदर देखेंगे तो वो दूध पाउडर वाला है, जो बस सफ़ेद हैं, न तो उसमें पोषण हैं और न ही उसमें लम्बे समय तक ताकत देने के गुण हैं.
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हमारी अर्थव्यवस्था भी ऐसी ही हो गयी है, ऊपर से देखो तो खूब नौकरियां हैं, linkedin पे भरमार है नौकरी की, नए नए स्टार्टअप VC के पैसे लेकर कुकुरमुत्ते की तरह हर जगह निकल रहे हैं, उनके CEO, Founder सब मालामाल है. कोई Bangalore के इंदिरा नगर में, कोरमंगला में अपार्टमेंट खरीद रहा है तो कोई पुणे के हडपसर में, लेकिन सच्चाई तो यही है की उधार पे चलने वाले ये स्टार्टअप दिवालिया होने से बस एक कदम दूर खड़े हैं, लेकिन अर्थव्यवस्था के हिसाब से तो सब चंगा है.
एक वो मजदुर है जो सुबह 9 बजे साइट पे आ जाता है, दिन भर धुप में, उमस में काम करता है और शाम को ठेकेदार के सामने हाथ जोड़कर खड़ा रहता है की बस 300-400 की उसकी दिहाड़ी मिल जाए वहीँ ये भी उम्मीद करता है ठेकेदार उसको अगले प्रोजेक्ट में रख लेगा।

इन सबके बीच पिसा हुआ है आम आदमी। जो किराए के घर में रहता है और खुद को सोसाइटी का मालिक समझता है, नौकरी पे जाता है तो खुद को लेबर समझता है, रेस्टोरेंट में जाता है तो खुद को सेठ समझता है, वेटर पे ऐसे रॉब झाड़ता है जैसे 400 की पनीर के बदले वेटर को खरीद लिया है. आम आदमी दरअसल समझ नहीं पा रहा है की वो लेबर है जो अपने कॉर्पोरेट बॉस के हुक्म पे दुम हिलाता है ये घर, गाडी, रेस्टोरेंट में पैसे खर्च करने वाला वो candidate जो खुद को रईसों के क्लब में जाने के लिए eligible मान रहा है?

खैर, बातें तो होती रहेंगी, जब तक सूरज और चाँद है, तक तक आम आदमी पिस्ता रहेगा क्यूंकि न तो मोदी सरकारी को उसकी फ़िक्र है, न केजरीवाल को और राहुल गॉंधी तो वैसे भी सत्ता से बाहर हैं.
आप टमाटर खाइये, अगर afford कर सकते हैं, नहीं तो टमाटर puree ले लीजिये, सस्ता पड़ेगा.